Friday, 14 July 2017

हाल-ए-इश्क

हवस की इन्तेहा पे श॔मिन्दा हूं,
खुद पर यकीं नहीं के ज़िन्दा हूं!!
एहमीयत जिस्म को ज़मीर से ज़ादा मिले!
तौहीन-ए-नीयत ही ख्वाईश-ओ-इरादा मिले!!
इश्क की आरज़ू थी हमे, हुस्न का इन्तेज़ार!
एक पाकिज़ा रूहानी ऐहसास पे ऐतबार!!
होगी नज़ाकत से भरी निगाहों में फज़ल!
ख़ामोश कुरबानियों को बयाँ करती गज़ल!!
वो माशूक के पेशानी पे होठो से छू लेना!
वो गोदी में रख कर सर, तमाम सुकूँ लेना!!
ये बिस्तर की सिलवटो का फसाना और है!
बेमाएने रिशतो का ये ज़माना और है!!
कभी ग़म था, अपने अकेलेपन का मुझे!
आज इतमनान है, इस तनहा कफ़न का मुझे!!
अच्छा है मेरे साथ जुड़ा कोइ नाम नहीं है!
ज़मीर के कत्ल का कम से कम इलज़ाम नहीं है!!

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