Friday, 26 January 2018

यूँही कभी कभी

आज भी मैं कभी कभी,
उन गलियों से आता जाता हूँ ,
जहाँ तुम्हारे कदम पड़े , कभी कभी
मैं उनके सजदे कर आता हूँ। 

जब यादें तुम्हारी सताती है, कभी कभी
तनहा राहों में निकल जाता हूँ।
बेतुकी कल्पनाओं से, कभी कभी
अपनी फूटी किस्मत को बहलाता हूँ।

जिन मंज़रों में तुम्हे पाना नामुमकिन है,
कभी कभी, वहीँ तुम्हे ढून्ढ अता  हूँ।
खबर मिली नहीं के तुम आये हो,  कभी कभी,
कदम खुद-ब-खुद चलने लगते हैं , रोक नहीं पाता हूँ।

फिर लगता है कभी कभी,
गुन्हेग़ार हूँ तुम्हारा, ज़िद यहीं छोड़ जाता हूँ।
किस गुन्हा की सजा मैं खुदको दे रहा हूँ,
सोचकर फिर , खुद ही हैरान सा हो जाता हूँ।

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