Tuesday, 16 June 2020

हासिल-ए-ज़िंदेगी

तदबीर कुछ, कुछ और इरादा था
वो नादान उम्र का तकाज़ा था !
हसरत ने इबादत की शक्ल न ली थी
बेअदबगी का भी खामियाज़ा था !!

क्या पता था की ये इस कदर नासूर होगा
धड़कनो में दर्द, आखों में सूखा समंदर होगा !
शक़्स ना मिला वो, तो दिल शक्शियत तलाशता रहा
ढूंढ़ता रहा, माज़ी की परछाई कीस्के  अंदर है ?


ये हाल-ए-जूनून बड़ा ज़ालिम है, कुछ सूझता नहीं
इस तळाश में होश ना रहा, उसके भी अरमान होंगे !
होता कुछ फायदा अगर, अपने शख्सियत पे भी काम होता
ऐसे कैसे और क्यों भला वो हमपे यूँही मेहरबान होंगे !!

जब तक इस बात का एहसास हो देर हो चुकी थी
गुज़र चुकी थी मंज़िल और राह  मुड़ चुकी थी गर्दिश की ओर !
इस हाल में विवाह? मै बेगैरत वो भी कर गया!
अपने वलिदों की ख़ुशी के लिए के चला उसे भी आतिश की ओर !!

मुझे माफ़ कर सको तो कर देना हमदम!
ये जन्मो का साथ महीनो ही चला पाया मैं !
हासिल-ए-ज़िंदेगी अब तुझे दागदार करने का इलज़ाम
देखना ये के इस कलंक के साथ कहाँ तक जी पाया मैं !!





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